तारों के जाल में उलझी
क्षण भर रुका व्यतीत
अवश्य ! पर नहीं
बंधना होता है पतंग को
उसकी डोर कभी न कभी
पीछे हाथ में रह जाती है
जो रेत मुट्ठी से धीरे - धीरे सरक जाती है
सच है , भागना भी उसके पीछे
मैदान गली - गली सँकरी गली
मिल जाती है किसी ऊँचे वृक्ष में फँसी
तारों के जाल में उलझी , पर रुकता नहीं
तब भी कोई , न हम न हमारी वो पतंग
दोनों अपनी पटरी पर
समय का साथ निभाते चलते चले जाते है ।

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