इतना ही पल काफी है


इतना  ही  पल  काफी  है  

हार  और  जीत  इन  दोनों  से  पार

स्मृतियों  के  गुजरते  देश  में  जाने  को

बीते  लम्हे  की   खुशबू   ओढ़े   किसी  लिफाफे

की    तहे   परतों   को   खोलता  हुआ 

झरोखों   में    ढलता   दिन

प्रभात   का   अभिव्यंजक

पुलकों  में  समाविष्ट   मन  की   हलचल  का   तार 

अंतर्मन  को   जो   संदेशा  भेजता  बार  - बार

परिधि  में  बंध   एक   फेनिल  सा  उजास

ज्यों - ज्यों  मथ ता  जाता  दूषित  अंधियारा 

मिट  गह्वर  में  भी  प्रकाश  तब  नजर  आता

अभिमान  में  रत  भूला  फिर  वापस  अपने  घर  को  आता

शुष्क   उच्छ्वास   ही   नमी   का  पर्याय 

व्यथित  हो  , क्या  भूल  गए  अपना  अभिप्राय

चलो  आज   दूर   नहीं   कहीं   अपने   भीतर  पथ

पर   कुछ  कदम   चल  यूँही   अपने  से  एक  बार  मिल  आए

वरना  इंतजार  में  तो  सदियाँ  बीत  रही  है 

आज  बंद   किवाड़ियाँ   का  कोना   खुला  है ,

स्वागत   गीत    पीले   पड चुके   फटे  खतों  पर    वैसा  ही  लिखा  है ।



टिप्पणियाँ

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में रविवार, 5 अक्टूबर , 2025 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं
  2. रचना को पाँच लिंकों के आनंद में सम्मिलित करने के लिए हार्दिक धन्यवाद !

    जवाब देंहटाएं
  3. कुछ कदम चल यूँही अपने से एक बार मिल आए

    बहुत सुंदर!!

    जवाब देंहटाएं
  4. मन के भावों को शब्द देने की कोशिश ...

    जवाब देंहटाएं

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