ये प्रेम ही
नदियाँ चुपचाप नील गगन में बहती है ।
वे हमसे चुपचाप कुछ कहती है ।
श्वेत - नील स्वच्छ पयो परिधान
रजतवर्ण चाँदी सा बर्क
टुकड़ा भर देता वेग गति में
झरने से बहती कलकल
ध्वनि शांत ब्रह्म निनादनी
हरा जंगल चहुँओर
कोयल कूँजती डाली पे
कठफोड़वे की कठ - कठ
देती मैना स्वर टाँये - टाँये
जंगल घनघोर में छिप आती
प्याऊँ - प्याऊँ की मोरमयूरी आवाज
पत्थर का भी अपना रव है
धूप - दुर्वा तृण देते रहे - रहे
अपनी सरगम मिल - मिलकर
आकाश ज्यों चलता जाये
आशीष देता मन अपना
देख - देख भरमाता
धरा का धानी आँचल
लिये अंक अपने प्यारों को
देती आह्लाद ममता का भरभर
माता का उद्गार सदा स्नेह सरिता
बन बरसता अमृतधार जिसे पा
जीवन वास्तव में जीवन कहलाता
ये प्रेम ही संपूर्ण ब्रह्मांड को गम्य बनाता ।

जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 27 अगस्त 2025 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
धन्यवाद पम्मी जी !
हटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंसच कहा अहि ... प्रेम है जो जीवन है और रँग हैं ...
जवाब देंहटाएंस्वागत एवं धन्यवाद !
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