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इतना ही पल काफी है

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इतना  ही  पल  काफी  है   हार  और  जीत  इन  दोनों  से  पार स्मृतियों  के  गुजरते  देश  में  जाने  को बीते  लम्हे  की   खुशबू   ओढ़े   किसी  लिफाफे की    तहे   परतों   को   खोलता  हुआ  झरोखों   में    ढलता   दिन प्रभात   का   अभिव्यंजक पुलकों  में  समाविष्ट   मन  की   हलचल  का   तार 

देख उसे जो मंद मंद मुस्काती थी ..!

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वीणा आज रखी थी चुप  छेड़े नहीं गए थे मधुर राग उस पर , समय कुँठाव काली चुप अंधेरे में खो गई थी समाधिस्थ अंतर्मन में वो यों रखी थी , बिन वादक के लय सजीव विधुरनी हो गई थी 

ममत्व की प्यारी निंदिया

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तूफां अन्धेरी गरजती रात  सुनसान निःसृत अनजान हवाओं का था केवल शोर तारक जन अनगिनत अनन्त में चमक रहे थे घुति से प्रकाशमय कला में पूर्ण हो रहा था चंद्र घुतिमान वेगवान झलक रहे थे बहते